जीवन को किसी बड़े लक्ष्य के लिए समर्पित करने वालों को सत्ता और व्यवस्था की क्रूरता चाहे कितनी भी आंख दिखाए, वे विचलित नहीं होते। क्योंकि उनका संबल होता है यह विश्वास-
‘यूं ही उलझती रही है जुल्म से ख़ल्क
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत
‘यूं ही खिलाये हैं हमने आग के फूल
न उनकी हार नयी है, न अपनी जीत।’
सीमा और विश्वविजय की जेल डायरी भी इसी आत्मविश्वास का प्रतिफल है।
डायरी का हर पृष्ठ इस सचाई की तस्दीक करता है कि बंदी व्यक्ति को तो बनाया जा सकता है, उसके विचार को नहीं। विचार तो वायु की तरह संचरित होते हैं, दृढ़ संकल्पों से सुवासित।
राजेन्द्र कुमार, अध्यक्ष जन संस्कृति मंच